एकलव्य

महाभारत को काल्पनिक कहने वाले कभी एकलव्य को काल्पनिक नहीं कहते हैं। वैसे सनातनी आस्था वाले लोग तो महाभारत को भी वास्तविक ही मानते हैं और महाभारत की घटनाओं को भी, जो कि सर्वथा उचित भी है। महर्षि वेदव्यास प्रणीत सर्वलोकोपकारी, इस विशाल महाग्रंथ में सभी कर्तव्य, धर्म और तत्वों का सार निहित है। हम आज इस बात पर चर्चा करेंगे कि क्या एकलव्य और बर्बरीक पर कोई अत्याचार हुआ था ? क्या एकलव्य का अंगूठा कटवाना अथवा महाभारत युद्ध से पूर्व ही बर्बरीक का मस्तक काटना, अत्याचार या शोषण नहीं था ? महाभारत स्वयं तो एकलव्य एवं बर्बरीक का कोई विस्तृत वर्णन नहीं करता, अपितु सांकेतिक वर्णन करता है, किन्तु उसके खिलभाग हरिवंशम् में अथवा वेदव्यास कृत अन्य ग्रंथों में इनका व्यापक वर्णन मिलता है।

सर्वप्रथम हम बर्बरीक पर चर्चा करेंगे। बर्बरीक अत्यंत पराक्रमी राक्षस थे। ये भीम और हिडिम्बा के संयोग से उत्पन्न राक्षसराज घटोत्कच, जो कामाख्या के निकट में मायांग (मायोंग) के राजा थे, के पुत्र थे। इनके भाई का नाम अञ्जनपर्वा एवं माता का नाम कामकटंकटा था। मतांतर से कामकटंकटा का नाम मौर्वी भी था क्योंकि यह मुर दैत्य की पुत्री थी। मुर दैत्य प्राग्ज्योतिषपुर (लगभग आज का पूरा असम) के राजा नरकासुर का दुर्गप्रहरी था। घटोत्कच का नाम उनसे केशहीन होने के कारण पड़ा तो बर्बरीक का नाम उनके विशाल एवं कठोर केशों के ही कारण था, जैसा कि स्कन्दपुराण के कौमारिकाखण्ड का वचन है

बर्बराकारकेशत्वाद्बर्बरीकाभिधो भवान्॥

बर्बरीक राक्षसकुल में जन्म लेने के बाद भी अत्यंत संस्कारी एवं धर्मपरायण थे। ये कभी अपने सामर्थ्य का प्रयोग संसार को पीड़ा देने के लिये नहीं करते थे। भगवान् श्रीकृष्ण ने इन्हें धर्मशास्त्रों के तत्व की विशेष शिक्षा दी थी एवं चारों वर्णों के कर्तव्य का बोध कराकर देवी की तपस्या करने के लिए गुह्यतीर्थ (कामाख्या) में भेज दिया। वैसे भी बर्बरीक के पिता का राज्य वहां से दो योजन (लगभग 25 किमी) की दूरी पर ही था।

उस गुह्यतीर्थ में विजय नाम के एक तपस्वी ब्राह्मण अपनी साधना कर रहे थे। उनकी तपस्या में विघ्न उत्पन्न करने के लिए अनेकों हिंस्र जंतु, पिशाच एवं राक्षसों के झुंड आते थे। बर्बरीक ने उन सबका संहार करके विजय मुनि की रक्षा की। अपनी तपस्या पूर्ण होने पर विजय ने हवन का भस्म एवं देवी का सिन्दूर दिया। उसमें त्रिलोक का संहार करने की क्षमता थी। बाद में बर्बरीक ने भी देवी की आराधना करके उनसे दिव्य बाण आदि की प्राप्ति की।

एक बार वनवास के मध्य भीमसेन ने किसी जलस्रोत को प्रदूषित कर दिया था तो बर्बरीक ने उन्हें ऐसा करने से रोका। उस समय तक बर्बरीक ने पांडवों को देखा नहीं था। अपने बल के अभिमान में भीमसेन ने बर्बरीक का अपमान किया तो बर्बरीक उन्हें उठाकर समुद्र में फेंकने के लिए चल पड़े। बाद में आकाशवाणी हुई कि ये तुम्हारे पितामह भीमसेन हैं, तब बर्बरीक ने उन्हें छोड़ा। भीमसेन ने भी प्रकृति को प्रमादवश प्रदूषित करने के लिए क्षमा मांगी थी। यह सब कथाएं स्कन्दपुराण आदि में विस्तार से वर्णित हैं। अब हम उस प्रसङ्ग पर आते हैं जहां महाभारत के युद्ध से पूर्व सभी योद्धागण अपने अपने दिव्यास्त्रों की सीमा और क्षमता का आंकलन कर रहे थे। पाण्डवों के पक्ष से युद्ध में सम्मिलित हुए बर्बरीक ने कहा कि मैं क्षणमात्र में ही उपस्थित दोनों सेनाओं के संहार कर सकता हूँ। इस बात को अविश्वसनीय मानकर सभी वीरों ने उपहास किया। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा कि जिस सेना को जीतना देवतागण के लिए भी दुष्कर है उसे तुम अकेले ही क्षणमात्र में कैसे संहार कर सकते हो, इसका प्रमाण दो। भगवान् की बात को सुनकर बर्बरीक ने कहा कि यदि मर्म का बोध हो तो एक ही प्रहार से शत्रु को मारा जा सकता है (इसी विचारधारा का प्रयोग मार्शल आर्ट्स वाले करते हैं)

बर्बरीक ने अपने दिव्य तीन बाणों इन से एक बाण को विप्रदत्त सिन्दूर से अभिमंत्रित किया और मर्मनिरीक्षण किया। उनके द्वारा चलाए गए बाण से जो सिन्दूर निकला वह विस्तृत होकर दोनों सेनाओं में गिरा। द्रोण, द्रुपद एवं विराट के कंठ पर सिन्दूर गिरा। दुर्योधन की जंघा, भगदत्त की नासिका भाग एवं शल्य की छाती पर सिन्दूर लगा। भीष्म पितामह के सभी रोमकूपों में सिन्दूर व्याप्त हो गया और भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में भी लगा। कृपाचार्य और अश्वत्थामा को चिरंजीवी होने से सिन्दूर नहीं लगा एवं पाण्डवों को भी नहीं लगा। आप ध्यान देंगे तो उन वीरों का जिस जिस अंग में सिन्दूर लगा था, महाभारत के युद्ध में उसी अंग पर प्रहार होने से उनकी मृत्यु हुई थी। कालांतर में जब श्रीकृष्ण भी धराधाम को त्याग रहे थे तो जरा नामक व्याध के द्वारा पैरों में ही बाण लगने का निमित्त बनाया था।

इस प्रकार सबों के मर्म का निरीक्षण करके बर्बरीक ने उन सबों को मारने की इच्छा से दूसरे बाण का सन्धान किया। इसी मध्य भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने चक्र से बर्बरीक का मस्तक काट दिया। इस अप्रत्याशित घटना से सभी लोग हतप्रभ रह गए। घटोत्कच तो अपने पुत्र की मृत्यु पर मूर्छित सा हो गया एवं पाण्डव भी शोकाकुल हो गए, सभी लोग श्रीकृष्ण को दोषी कहने लगे। उसी समय चण्डिका, वाराही आदि चौदह देवियां प्रकट हुईं एवं एक रहस्य बताया।

देवियों ने कहा - पूर्वकाल में यह बर्बरीक सूर्यवर्चा नामक यक्ष था जो चौरासी करोड़ यक्षों (अथवा मुद्राओं) का स्वामी था। जब स्वर्गलोक में देवताओं की सभा हो रही थी कि पृथ्वी के भारहरण के लिए भगवान् विष्णु का अवतार होना चाहिए एवं उनके साथ ही अन्य देवताओं को भी जाना चाहिए, उस समय एक घटना घटी।

एतस्मिन्नन्तरे बाहुमुद्धृत्योच्चैरभाषत।
सूर्यवर्चेति यक्षेन्द्रश्चतुराशीतिकोटिपः।
किमर्थं मानुषे लोके भवद्भिर्जन्म कार्यते॥
मयि तिष्ठति दोषाणामनेकानां महास्पदे।
सर्वे भवन्तो मोदन्तु स्वर्गेषु सह विष्णुना॥
(स्कन्दपुराण, माहेश्वरखण्ड-कौमारिकाखण्ड, अध्याय - ६६, श्लोक - ५८-६०)

इसी बीच चौरासी करोड़ के स्वामी सूर्यवर्चा नामक यक्ष ने अपनी भुजाएं उठाकर उच्चस्वर से यह उद्घोषणा की - आपलोग व्यर्थ में ही मनुष्य योनि में जन्म लेना चाहते हैं। पृथ्वी के भार हरण के लिए तो मैं ही पर्याप्त हूँ, मेरे रहते हुए आपलोग क्यों कष्ट करेंगे। युद्ध में बहुत अधिक दोष होते हैं (अतएव बिना सामूहिक युद्ध के अकेले ही सबको मार दूंगा) आप सभी देवगण स्वर्गादि दिव्यलोकों में विष्णु के साथ आनन्दित रहें।

सूर्यवर्चा यक्ष के ऐसा कहने से सभी देवताओं को अपमान का अनुभव हुआ। भगवान् के अवतार का उद्देश्य मात्र संसार के अधर्मियों के नाश करना नहीं होता है, वे लोकमर्यादा की शिक्षा एवं धर्म की स्थापना के लिए भी आते हैं। नानाविध प्रकार से उनके लीलाभाव में सम्मिलित होने की इच्छा वाले भक्तों की कामनापूर्ति भी करते हैं, यद्यपि भगवान् भृकुटिविलासमात्र से सृष्टि संहार में समर्थ हैं फिर भी अवतार लेते हैं। अवतारभेद के उद्देश्य का ज्ञान न रखने वाले उस बलाभिमानी यक्ष को उस सभा में ब्रह्मदेव ने श्राप दिया - तुम पृथ्वी पर राक्षसकुल में जाओगे, अत्यन्त पराक्रमी भी बनोगे किन्तु जब मुख्य युद्ध का अवसर आएगा तब तुम्हारा मस्तक श्रीकृष्ण के द्वारा काट लिया जाएगा।

देवी के द्वारा इस रहस्य का उद्घाटन होने से वहां उपस्थित सभी लोगों ने इस घटना को पूर्वनिर्धारित जानकर भगवान् श्रीकृष्ण को निर्दोष माना। इसके बाद देवी ने बर्बरीक के मस्तक भाग को पुनर्जीवित कर दिया।

इत्युक्ते चण्डिका देवी तदा भक्तशिरस्त्विदम्।
अभ्युक्ष्य सुधया शीघ्रमजरं चामरं व्यधात्॥
यथा राहुशिरस्तद्वत्तच्छिरः प्रणनाम तान्।
उवाच च दिदृक्षामि युद्धं तदनुमन्यताम्॥
ततः कृष्णो वचः प्राह मेघगंभीरवाक्प्रभुः।
यावन्मही सनक्षत्रा यावच्चन्द्रदिवाकरौ॥
तावत्त्वं सर्वलोकानां वत्स पूज्यो भविष्यसि।
देवीलोकेषु सर्वेषु देवीवद्विचरिष्यसि॥
(स्कन्दपुराण, माहेश्वरखण्ड-कौमारिकाखण्ड, अध्याय ६६, श्लोक - ७३-७६)

चण्डिका देवी ने अपने भक्त के मस्तक को अमृत के द्वारा पुनर्जीवित करके उसे अजर अमर बना दिया। जैसे राहु का शिरमात्र ही है वैसे ही बर्बरीक भी हो गया और उसने सबको प्रणाम दिया और कहा कि आपसबों की सम्मति से मैं अब इस युद्ध का मात्र दर्शन करूँगा। उस समय मेघ के समान गंभीर वाणी में भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - जबतक यह पृथ्वी सभी नक्षत्रों के साथ विद्यमान है, जब तक सूर्य एवं चन्द्र हैं, तब तक हे वत्स ! तुम पूरे संसार के लिए पूजनीय रहोगे। जैसे इस संसार में, तथा अपने लोकों में देवी (इच्छानुसार) विहार करती हैं, वैसे ही तुम भी करोगे। इस प्रकार भगवान् ने बर्बरीक को देवतुल्य बनाकर लोकपूज्य स्थान में वास दे दिया तभी से बर्बरीक ने श्रीकृष्णतुल्यता के साथ संसार में भक्तों का, विशेषकर रोगनाश, बालारिष्ट शमन आदि के माध्यम से कल्याण करना प्रारम्भ किया।

अब हम एकलव्य की चर्चा करते हैं। लोक में प्रसिद्ध है कि एकलव्य हिरण्यधनु नामक निषादराज का पुत्र था किन्तु ग्रंथों के विशेषज्ञ जानते हैं कि वह हिरण्यधनु का औरस नहीं, पालित पुत्र था। वास्तव में एकलव्य का नाम शत्रुघ्न था एवं वह यदुवंशी देवश्रवा (श्रुतदेव) का पुत्र था। उसे लोकसंहारक गतिविधियों के कारण राज्य से निकाल दिया गया था, क्योंकि वह कंस का पक्षधर था। बाद में उसे निषादराज हिरण्यधनु ने पाला और एकलव्य कंस के श्वसुर जरासन्ध आदि के दल में सम्मिलित हो गया।

निवृत्तशत्रुं शत्रुघ्नं श्रुतदेव त्वजायत।
श्रुतदेवात्मजास्ते तु नैषादिर्यः परिश्रुतः॥
एकलव्यो मुनिश्रेष्ठा निषादैः परिवर्द्धितः।
ब्रह्मपुराण, अध्याय - १४, श्लोक - २७)

निवृत्तशत्रुं शत्रुघ्नं देवश्रवा व्यजायत।
देवश्रवाः प्रजातस्तु नैषादिर्यः प्रतिश्रुतः।
एकलव्यो महाराज निषादैः परिवर्धितः॥

(हरिवंशपुराण, हरिवंशपर्व, अध्याय - ३४, श्लोक - ३३)

इसी का समर्थन वायुपुराण आदि भी करते हैं। इधर द्रोणाचार्य कौन थे ? वे हस्तिनापुर के राजगुरु थे। हस्तिनापुर के राजकुमारों को शिक्षित करने के लिए ही उन्हें विशेष नियुक्ति मिली थी, जबकि एकलव्य जरासन्ध के पक्ष का था। हस्तिनापुर उस समय ऐसा राज्य था जो भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि से सुरक्षित होने के कारण किसी की अधीनता स्वीकार नहीं करता था। इसके अतिरिक्त पूरा संसार दो ही राजाओं के सामने झुका हुआ था, एक तो मगधनरेश जरासन्ध एवं दूसरे प्राग्ज्योतिषपुर के राजा नरकासुर। नरकासुर ने हजारों राजाओं की पुत्रियों को विवाह हेतु बन्दी बना रखा था तो उन हज़ारों राजाओं को तामसी यज्ञ में नरबलि देने हेतु जरासन्ध ने बन्दी बना रखा था। नरकासुर की बाणासुर एवं कंस से मित्रता थी और जरासन्ध का दामाद कंस था। साथ ही कंस बाणासुर का मित्र भी था। तो इस प्रकार जरासन्ध एवं नरकासुर में भी मित्रता थी। जरासन्ध के साथ पांचालनरेश द्रुपद एवं मत्स्यनरेश विराट भी थे। अब एकलव्य जरासन्ध का सहयोगी था तो हस्तिनापुर का शत्रु हुआ। साथ ही जरासन्ध के मित्र द्रुपद की द्रोणाचार्य से शत्रुता भी थी तो इस प्रकार एकलव्य, हस्तिनापुर राज्य का परम शत्रु हुआ।

एकलव्य अपनी प्रतिभा का प्रयोग संसार को कष्ट देने के लिए करता था, साथ ही आसुरी शक्तियों के साथ उसकी मित्रता थी, अतएव द्रोणाचार्य ने उसे शस्त्र की अतिरिक्त शिक्षा नहीं दी थी। द्रोणाचार्य के मन में एकलव्य के प्रति कोई निजी दुर्भावना नहीं थी। द्रोणाचार्य अत्यन्त उदार थे, उन्होंने इस घटना के बाद, स्वयं को मारने के लिए उत्पन्न द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न को स्वयं ही शस्त्र की शिक्षा दी थी, क्योंकि उससे शेष संसार को कोई कष्ट नहीं था। तो यदि एकलव्य निजी शत्रु होता, साथ ही संसार को उससे कोई कष्ट नहीं होता तो भी द्रोणाचार्य उसे सिखा देते किन्तु वह राज्यशत्रु भी था और लोकसंहार की प्रवृत्ति से युक्त भी था। यदि चीन या पाकिस्तान का कोई ऐसा व्यक्ति, जिसका अतीत संसार के प्रति आतंकवाद का हो, यहां आए तो भारत का कोई सैन्य प्रशिक्षक उसे प्रशिक्षण दे सकता है क्या ?

एकलव्यं हि साङ्गुष्ठमशक्ता देवदानवाः।
सराक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित्॥

(महाभारत, द्रोणपर्व, अध्याय - १८२, श्लोक - १९)

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! यदि एकलव्य अंगूठे से युक्त होता तो देवता, दानव, राक्षस, नाग आदि भी उसे शायद ही युद्ध में जीत पाते।

अतः द्रोणाचार्य ने लोक को उसके प्रकोप से बचाने के लिए उसके अंगूठे को मांग लिया और उसकी प्रतिभा पूर्णतया समाप्त न हो जाए, इसके लिए उसे बिना अंगूठे के ही तर्जनी एवं मध्यमा के सहयोग से तीर चलाने की विधि बता दी थी, जिसका प्रयोग आजतक ओलम्पिक आदि में भी होता है। यहां महाभारत का प्रसङ्ग देखें -

ततो निषादराजस्य हिरण्यधनुषः सुतः।
एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह॥
न स तं प्रतिजग्राह नैषादिरिति चिन्तयन्।
शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्ववेक्षया॥
(महाभारत, आदिपर्व, अध्याय - १४२, श्लोक - ४०-४१)

निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र एकलव्य द्रोण के पास गया किन्तु धर्मज्ञ द्रोणाचार्य ने उसे निषादपुत्र समझकर धनुर्विद्या नहीं दी।

यहां द्रोणाचार्य के लिए धर्मज्ञ शब्द आया है, और साथ ही समझकर, ऐसा संकेत है। क्या समझकर ? निषादपुत्र समझकर। द्रोणाचार्य जानते थे कि यह निषादपुत्र तो है नहीं, यह तो मथुरा के राजवंश का क्षत्रिय है, जिसे असामाजिक गतिविधियों के कारण निकाल दिया गया तब निषादों ने इसे अपना लिया, ऐसा समझकर, ऐसा उसके पूर्व चरित्र को जानकर, धर्म का विचार करके द्रोणाचार्य ने उसे मना कर दिया।

द्रोणाचार्य जैसे त्रिलोकविजेता ज्ञानी इतने सरल थे कि उनके यहां उनके शिवावतार चिरंजीवी पुत्र को पीने के लिए दूध तक नहीं होता था। क्या उनकी इस दरिद्रता पर सामाजिक न्याय वाले कभी चर्चा करेंगे ? जब द्रोणाचार्य अपने पूर्व सहपाठी राजा द्रुपद के पास गए तो द्रुपद ने उनका अपमान करते हुए कहा -

न दरिद्रो वसुमतो नाविद्वान्विदुषः सखा।
न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते॥
ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं श्रुतम्।
तयोर्विवाहः सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयोः॥
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा।
नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते॥
(महाभारत, आदिपर्व, अध्याय - १४१, श्लोक - ०९-११)

द्रुपद ने कहा - जो निर्धन है, वह भूमिपति का मित्र नहीं होता। मूर्ख व्यक्ति विद्वान् का, नपुंसक व्यक्ति वीर का सखा नहीं होता, फिर हम दोनों में पूर्वकाल में कैसे मित्रता सम्भव हो सकती है ? जिनका आर्थिक स्तर एवं प्रसिद्धि समान होती है, उनके मध्य ही वैवाहिक सम्बन्ध अथवा मित्रता होती है, असमानों में नहीं। जो वेदज्ञ नहीं है, उसका वेदज्ञ से, जो रथी नहीं है, उसका रथी से, जो राजा नहीं है, उसका राजा से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध नहीं होता है। फिर हम दोनों में कैसी मित्रता ?

राजा द्रुपद के इस प्रकार कहने पर द्रोणाचार्य अपमान का घूंट पीकर रह गए और समर्थ होने पर भी द्रुपद को उस समय दण्डित नहीं किया। बाद में भीष्म पितामह ने उन्हें ससम्मान अपने राज्य में गुरुपद प्रदान किया।

एकलव्य वाली इस घटना के कुछ वर्षों के बाद कंस मारा गया और भगवान् मथुरा में वास करने लगे। अपने जामाता के मरने पर जरासन्ध ने सत्रह बार तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ मथुरा पर आक्रमण किया किन्तु प्रत्येक बार उसे पराजित होना पड़ा। अठारहवीं बार कालयवन के एक करोड़ सैनिकों के साथ तथा अपनी भी विशाल सेना को सम्मिलित करने के बाद जरासन्ध ने विशाल आक्रमण किया जिससे प्रजा को बचाने के लिए भगवान् ने रातोंरात विश्वकर्मा के सहयोग से द्वारिका का निर्माण करवाकर वहां प्रजा को स्थानांतरित कराया था।

अब चूंकि जरासन्ध इतना पराक्रमी सम्राट था कि कोई भी उसके विरुद्ध खड़ा नहीं होता था इसीलिए जब उसने अठारहवीं बार मथुरा पर आक्रमण किया तो उसके साथ अनेकों प्रसिद्ध राजा भी आये, किन्तु मथुरा के पक्ष से कोई नहीं आया। जब भगवान् श्रीकृष्ण ने नीति का पालन करते हुए समय को टालने की इच्छा से एवं प्रजा को कालयवन तथा जरासन्ध के दोतरफा आक्रमण से बचाने के लिये, शत्रुओं को भ्रमित करते हुए युद्धभूमि से भागने की लीला की और बाद में बलरामजी के साथ प्रवर्षण पर्वत पर छिप गए तो जरासन्ध ने चिढ़ कर उस पूरे पर्वत को आग लगाने की आज्ञा दे दी थी। उस समय जरासन्ध की सेना में निम्न वीर सम्मिलित थे -

मद्रः कलिङ्गाधिपतिश्चेकितानश्च बाह्लिकः।
काश्मीरराजो गोनर्दः करूषाधिपतिस्तथा॥
द्रुमः किंपुरुषश्चैव पर्वतीयाश्च मानवाः।
पर्वतस्यापरं पार्श्वं क्षिप्रमारोहयन्त्वमी॥
पौरवो वेणुदारिश्च वैदर्भः सोमकस्तथा।
रुक्मी च भोजाधिपतिः सूर्याक्षश्चैव मालवः॥
पाञ्चालाधिपतिश्चैव द्रुपदश्च नराधिपः।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ दन्तवक्त्रश्च वीर्यवान्॥
छागलिः पुरमित्रश्च विराटश्च महीपतिः।
कौशाम्ब्यो मालवश्चैव शतधन्वा विदूरथः॥
भूरिश्रवास्त्रिगर्तश्च बाणः पञ्चनदस्तथा।
उत्तरं पर्वतोद्देशमेते दुर्गसहा नृपाः॥
आरोहन्तु विमर्दन्तो वज्रप्रतिमगौरवाः।
उलूकः कैतवेयश्च वीरश्चांशुमतः सुतः॥
एकलव्यो दृढाश्वश्च क्षत्रधर्मा जयद्रथः॥
उत्तमौजास्तथा शाल्वः कैरलेयश्च कैशिकः।
वैदिशो वामदेवश्च सुकेतुश्चापि वीर्यवान्॥
पूर्वपर्वतनिर्व्युहमेतेष्वायतमस्तु नः ।
विदारयन्तो धावन्तो वाता इत बलाहकान्॥
हरिवंशपुराण, विष्णुपर्व, अध्याय - ४२, श्लोक - २८-३६)

जरासन्ध ने आदेश दिया - मद्र के राजा (शल्य), कलिंग के राजा, चेकितान, बाह्लीक (भीष्म पितामह के चाचा), काश्मीर के राजा गोनर्द (इन्हीं के नामपर कश्मीर का उत्तरी भाग, जो चीन से लगता है, बसाया गया था), करूष देश के राजा (पौंड्रक) महाराज द्रुम, किम्पुरुष (सुग्रीव के मन्त्री द्विविद आदि) पर्वतों पर रहने वाले मनुष्य, ये सब इस पर्वत के दूसरी ओर से शीघ्र चढ़ें। पुरुवंश का वेणुदारि, विदर्भ के राजा सोमक, भोजकट के स्वामी रुक्मी, मालवा के स्वामी सूर्याक्ष, पाञ्चाल के राजा द्रुपद, अवन्ती के राजा विन्द एवं उनके भाई अनुविन्द, प्रतापी दन्तवक्त्र, पुरमित्र, मत्स्यदेश के राजा विराट, कौशाम्बी के शतधन्वा और मालव के विदूरथ, भूरिश्रवा, त्रिगर्तनरेश (सुशर्मा), पञ्चनद के स्वामी बाण, ये सब इस पर्वत के उत्तरी भाग से शत्रु को रौंदते हुए चढ़ाई करें। छल करने में कुशल शकुनि का पुत्र उलूक, अंशुमान् का वीर पुत्र, दृढ़ाश्व, एकलव्य, क्षत्रधर्मा, जयद्रथ, उत्तमौजा, शाल्व, केरल के राजा कैशिक, विदिशा के स्वामी वामदेव, प्रतापी सुकेतु, ये सब पूर्वदिशा से पर्वत को वैसे ही विदीर्ण करते हुए आक्रमण करें जैसे वायु के प्रहार से बादलों के समूह बिखर जाते हैं।

इस समूह में जरासन्ध की ओर से जो राजा मित्रभाव से प्रसन्न होकर लड़ने आये थे उनमें उलूक, एकलव्य, शाल्व, रुक्मी, पौंड्रक, सुशर्मा, बाण, शतधन्वा, आदि सम्मिलित हैं। जो राजा एवं वीर जरासन्ध के भय से उसके साथ आ गए थे उनमें शल्य, विराट, द्रुपद, चेकितान, आदि थे।

बाद में चेकितान ने भगवान् श्रीकृष्ण की नारायणी सेना में नियुक्ति पा ली थी। जब महाभारत के युद्ध में नारायणी सेना दुर्योधन के पक्ष में चली गयी तो चेकितान ने सात्यकि के साथ पांडवों का पक्ष लिया था। ऐसे भी जरासन्ध के मरने के बाद उत्तमौजा, द्रुपद, विराट, आदि ने श्रीकृष्ण एवं पाण्डवों का पक्ष ही लिया था। जब युधिष्ठिर इस भूमण्डल का सम्राट बनने की इच्छा से राजसूय यज्ञ करना चाहते थे तो भगवान् श्रीकृष्ण ने निम्न बात कही -

क्षत्रे सम्राजमात्मानं कर्तुमर्हसि भारत।
दुर्योधनं शान्तनवं द्रोणं द्रौणायनिं कृपम्॥
कर्णं च शिशुपालं च रुक्मिणं च धनुर्धरम्।
एकलव्यं द्रुमं श्वेतं शैब्यं शकुनिमेव च॥
एतानजित्वा सङ्ग्रामे कथं शक्नोषि तं क्रतुम्।
तथैते गौरवेणैव न योत्स्यन्ति नराधिपाः॥
एकस्तत्र बलोन्मत्तः कर्णो वैकर्तनो वृषा।
योत्स्यते स परामर्षी दिव्यास्त्रबलगर्वितः॥
न तु शक्यं जरासन्धे जीवमाने महाबल।
राजसूयस्त्वयाऽवाप्तुमेषा राजन्मतिर्मम॥
(महाभारत, सभापर्व, अध्याय - १४ श्लोक - ६८-७२)

श्रीकृष्ण ने कहा - हे भरतवंशी युधिष्ठिर ! यदि आप पृथ्वी पर सम्राट बनना चाहते हैं तो दुर्योधन, शान्तनुपुत्र भीष्म, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कर्ण, शिशुपाल, धनुर्धर रुक्मी, एकलव्य, द्रुम, विराटपुत्र श्वेत, शैब्य, शकुनि आदि को बिना जीते ही राजसूय यज्ञ कैसे कर सकते हैं ? हम मानते हैं कि (भीष्म, द्रोण, कृप आदि) आपके प्रति स्नेह और सम्मान का भाव रखने से आपसे युद्ध नहीं करेंगे किन्तु आपसे ईर्ष्या करने वाला कर्ण तो अपने दिव्यास्त्र के बल पर अभिमान करने के कारण आपसे युद्ध करेगा ही। यदि वह भी युद्ध न करे तो भी जरासन्ध के जीवित रहते आप यह राजसूय यज्ञ नहीं कर सकते, ऐसा मैं समझता हूँ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण ने एकलव्य को वीरों की श्रेणी में अति सम्माननीय बताया है। इतना ही नहीं, जब राजसूय यज्ञ के समय किसकी अग्रपूजा हो, इस संशय में माद्रीतनय सहदेव ने कहा कि निश्चय ही, अग्रपूजा के अधिकारी भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, तो शिशुपाल ने वहां सभा में उपस्थित अन्य गणमान्य लोगों के नाम भी गिनाए थे।

भीष्मकं च महावीर्यं दन्तवक्त्रं च भूमिपम्।
भगदत्तं यूपकेतुं जयत्सेनं च मागधम्॥
विराटद्रुपदौ चोभौ शकुनिं च बहद्बलम्।
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ पाण्ड्यं श्वेतमथोत्तमम्॥
शङ्खं च सुमहाभागं वृषसेनं च मानिनम्।
एकलव्यं च विक्रान्तं कालिङ्गं च महारथम्॥
अतिक्रम्य महावीर्यं किं प्रशंसति केशवम्।
(महाभारत, सभापर्व, अध्याय - ६७, श्लोक - १९-२२)

शिशुपाल ने कहा - (रुक्मिणी के पिता) अत्यंत पराक्रमी भीष्मक, राजा दन्तवक्त्र, कामरूप के स्वामी भगदत्त, यूपकेतु, मगध के वीर जयत्सेन, विराट एवं द्रुपद ये दोनों, गान्धारनरेश शकुनि, बृहद्बल/ बहद्वल, अवन्ती के विन्द एवं अनुविन्द, पाण्ड्य के राजा, उत्तम आचरण वाले श्वेत, महाभाग शङ्ख, स्वाभिमानी वृषसेन, पराक्रमी एकलव्य, महारथी कलिंगनरेश, इन सभी महाबलशालियों को छोड़कर तुम केशव की प्रशंसा क्यों करते हो ?

भले ही यह बात शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के प्रति द्वेषभाव से कही थी किन्तु उपर्युक्त वीरों का समाज में अत्यंत श्रेष्ठ स्थान था, इसमें सन्देह नहीं है। एकलव्य ने बाद में भी कोई समाजसेवा का कार्य नहीं किया। अपने दल के अधर्मियों के साथ उसने द्वारिका पर आक्रमण कर दिया था। उस आक्रमण में दन्तवक्त्र का पुत्र सुवक्त्र भी था जो इन्द्र के समान पराक्रमी एवं सैकड़ों प्रकार के मायायुद्ध में निपुण था। उसमें स्वयं को भगवान् वासुदेव कहने वाले पौंड्रक का पुत्र सुदेव, पाण्ड्य एवं कलिंग के राजकुमार, तथा एकलव्य के पुत्र आदि निम्न वीर सम्मिलित थे -

दन्तवक्त्रस्य तनयं सुवक्त्रममितौजसम्।
सहस्राक्षसमं युद्धे मायाशतविशारदम्॥
पौण्ड्रस्य वासुदेवस्य तथा पुत्रं महाबलम्।
सुदेवं वीर्यसम्पन्नं पृथगक्षौहिणीपतिम्॥
एकलव्यस्य पुत्रं च वीर्यवन्तं महाबलम्।
पुत्रं च पाण्ड्यराजस्य कलिङ्गाधिपतिं तथा॥
(हरिवंशपुराण, विष्णुपर्व, अध्याय, ५९, श्लोक - ०३-०५)

आप सबों को करूष देश के मूर्ख राजा पौंड्रक का स्मरण तो होगा ही, जिसने स्वयं को ही विष्णु का अवतार वासुदेव घोषित कर दिया था एवं भगवान् श्रीकृष्ण को निम्न सन्देश भिजवाया था -

वासुदेवोऽवतीर्णोहमेक एव न चापरः।
भूतानामनुकम्पार्थं त्वं तु मिथ्याभिधां त्यज॥

(श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कन्ध - १०, अध्याय - ६६, श्लोक - ०५)

हे कृष्ण ! मैं ही वास्तविक वासुदेव हूँ, मेरे अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है। मैंने ही प्राणियों पर कृपा करने के लिए अवतार लिया है इसीलिए तुम अपना यह झूठ का आवरण छोड़ दो।

यह पौंड्रक बाद में सात्यकि के हाथों पराजित होता हुआ, अन्त में श्रीकृष्ण के हाथों मारा गया था, किन्तु यहां ध्यातव्य है कि इसके पक्ष से लड़ने के लिए एकलव्य भी आया हुआ था एवं बलराम जी मे उस युद्ध में एकलव्य को मानो रौंद ही डाला था। उस विशाल युद्ध की एक झलक देखें -

ततः शक्तिं समादाय घण्टामालाकुलां नृपः।
निषादो बलदेवाय प्रेषयित्वा महाबलः॥
सिंहनादं महाघोरमकरोत् स निषादपः।
सा शक्तिः सर्वकल्याणी बलदेवमुपागमत्॥
उत्पतन्तीं महाघोरां बलभद्रः प्रतापवान्।
आदायाथ निषादेशं सर्वान् विस्मापयन्निव॥
तयैव तं जघानाशु वक्षोदेशे च माधवः।
स तया ताडितो वीरः स्वशक्त्याथ निषादपः॥
विह्वलः सर्वगात्रेषु निपपात महीतले।
प्राणसंशयमापन्नो निषादो रामताडितः॥

(हरिवंशपुराण, भविष्यपर्व, अध्याय -९८, श्लोक - ११-१५)

तब महाबली निषादराज एकलव्य ने घण्टियों से सुशोभित, एक शक्ति (विशेष प्रक्षेपास्त्र) बलराम जी की ओर चलाकर घोर अट्टहास किया। वह शक्ति ज बलरामजी के पास आयी तो अपने ऊपर गिरती हुई उस महाघोर शक्ति को प्रतापी बलभद्र जी ने पकड़ लिया और उसे वापस निषादराज की ओर ही चला दिया, इस बात से सभी आश्चर्यचकित हो गए। उस शक्ति से माधव बलराम जी ने एकलव्य की छाती पर प्रहार किया। अपनी ही चलाई हुई उस शक्ति के प्रहार से निषादराज के सभी अंग व्याकुल हो गए और बलराम जी के द्वारा मारे जाने पर वह मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़ा।

युद्धविद्या के ग्रंथ पर सबका अधिकार है किन्तु राजा का विशेष कर के है, ऐसा वैशम्पायन ने नीति प्रकाशिका में कहा है। 

ब्राह्मणः क्षत्रियो राजा विशेषेण नराधिपः।
वैश्यो वा शूद्रजातीयस्स्त्रियो राजपरिग्रहाः॥
ते कीर्तिमन्तो भूत्वेह परत्र गतिमाप्नुयु:॥
(नीतिप्रकाशिका, अध्याय - ०८, श्लोक - ९७)

शिव जी ने शांर्गधर धनुर्वेद के प्रथम अध्याय के सातवें श्लोक में ही चारों वर्णों के विशेष अस्त्रों का वर्णन किया है -

ब्राह्मणाय धनुर्देयं खड्गं वै क्षत्रियाय च।
वैश्याय दापयेत्कुन्तं गदां शूद्रस्य दापयेत्॥

इसी मत का समर्थन वशिष्ठ की धनुर्वेद संहिता भी करती है। हालांकि ब्राह्मण भी खड्ग अथवा शूद्र भी धनुष, या क्षत्रिय भी गदा धारण कर सकता है, चला सकता है किंतु शिक्षा के क्रम में प्राथमिक अस्त्र यही निर्धारित किये गए हैं।

वशिष्ठ की धनुर्वेद संहिता के प्रथम अध्याय में श्लोक संख्या तीन, धनुर्वेदाधिकार के अंतर्गत चारों वर्णों के लिए युद्धविषयक प्रकल्प के निमित्त शस्त्रविद्या का अधिकार वर्णित है - 

धनुर्वेदे गुरुर्विप्र: प्रोक्तो वर्णद्वयस्य च। 
युद्धाधिकारः शूद्रस्य स्वयं व्यापादिशिक्षया॥

युद्धकला को सीखने के लिए मात्र प्रतिभाशाली ही होना आवश्यक नहीं है अपितु पवित्र उद्देश्य, धैर्य, लोकोपकार की भावना, आदि भी आवश्यक है। यह सभी गुण अर्जुन में थे, इसीलिए उन्हें स्वर्ग से भी निमंत्रण मिला। साथ ही शिवजी की कृपा से अनेकों दुर्लभ दिव्यास्त्र मिले। एकलव्य में प्रतिभा तो थी किन्तु सद्भावना नहीं थी। आज भी बहुत से कुशाग्र बुद्धि वाले डॉक्टर, इंजीनियर, वकील एवं वैज्ञानिक अपनी दुर्भावना के कारण आतंकवादी बन जा रहे हैं तो क्या उनकी प्रतिभा के कारण उनका सम्मान किया जाएगा ? द्रोणाचार्य तो इतने अधिक संवेदनशील गुरु थे कि धैर्य आदि गुणों से रहित होने के कारण उन्होंने अपने सगे पुत्र अश्वत्थामा को भी बारम्बार मांगने पर भी ब्रह्मशिर जैसा दिव्य अस्त्र नहीं दिया, ब्रह्मास्त्र को केवल चलाने की विधि बताई, उसे लौटाने की नहीं, किन्तु अर्जुन को उन्होंने ब्रह्मशिर भी दिया और ब्रह्मास्त्र लौटाने की विधि भी बताई, क्योंकि अर्जुन उचित पात्र थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि द्रोणाचार्य ने जब अपने पुत्र के साथ भी योग्यता की इतनी गम्भीर विवेचना करते हुए निर्णय लिया तो जिसका पूर्व का आचरण ही संदिग्ध रहा हो उस एकलव्य को कैसे अपनी विद्या दे देते, अतएव हम समझते हैं कि एकलव्य पर कोई अत्याचार नहीं हुआ था।

श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु
His Holiness Shri Bhagavatananda Guru

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