बनारस कैफ़े
बनारस कैफ़े
तन्मय कुंज द्वारा लिखित
ये कहानी ज़रा पुरानी-सी है; उस वक़्त की जब बनारस और भी ज़्यादा कूल हुआ करता था, जब स्मार्टफ़ोन्स का भौकाल नहीं था, हवाओं में बकैती का कंसंट्रेशन बहुत ज़्यादा था, और जब कहानी लिखी नहीं, बकी जाती थी।
अब आप कहेंगे- बनारस तो हमेशा से कूल था बे! इसकी कूलनेस में कोई कमी नहीं आई है। बकैती तुमनें छोड़ी होगी, हमनें नहीं। अब चुपचाप एक चौचक, चपशंड-सी स्टोरी सुनाओ नहीं तो बड़े प्रेम से कूटे जाओगे।
अरे, आप तो गुस्सा हो गए। चलिए सुनाते हैं-
तो कहानी 2006 की है। वो दोनों BHU के फ़ाइनल ईयर में थे। B.Tech ख़त्म होने में 2-3 महीने बचे थे। IIT-BHU में प्लेसमेंट वाले भनभना रहे थे। प्यार-व्यार जैसा कुछ था दोनों के बीच। दोनों फ़र्स्ट ईयर से ही हमेशा साथ दिखते थे। सुबह कॉलेज में, तो शाम में लंका, अस्सी, या बनारस की उन रैंडम-सी गलियों में।
दोनों की एक बात फ़िक्स होती थी कि दिनभर चाहे कहीं भी हो, शाम हर रोज़ साथ बिताएँगे। ये फाइनल ईयर था बॉस। ज़िंदगी भर साथ रहने के वादे इसी ईयर में टूटते हैं ना। या तो उसके पापा नहीं मानेंगे या तुम्हारा प्लेसमेंट नहीं होगा।
अब जो हो, लंका चलते हैं।
*लंका, बनारस*
-शाम 6 बजे-
“तुम्हें पता है इस जगह को लंका क्यों कहते हैं?’
“क्योंकि जैसा इंडिया के साउथ में श्रीलंका है ना, अपने बनारस के साउथ में उसका रेप्लिका है, और यहाँ सबसे अच्छा रावण दहन भी होता है।"
“सबकुछ पता होता है ना तुम्हें? कितने बोरिंग हो तुम।"
“बोरिंग और मैं? रहने दो तुम।”
“और बहुत गुस्सैल भी हो।”
*बनारस कैफ़े*
-BHU road का एक अज्ञात रेस्टॉरेंट, शाम 6:00 बजे-
“कैसे खाते हो तुम, बिल्कुल बच्चों की तरह! बिना गिराए खा ही नहीं सकते।"
“नहीं आता मुझे, या तो खिला दो या सिखा दो।"
“कब सीखोगे तुम? हमेशा मैं साथ नहीं रहूँगी।"
“नहीं सीखना मुझे।"
“अब चलो ये लास्ट बाईट है। मेरे हाथ से खा लो जल्दी से।”
हाथ और वो लड़का बिना ना-नुकुर किए लास्ट बाईट खा लेता है। दोनों थोड़ा लड़ते, थोड़ा हँसते, फिर उस रेस्टॉरेंट से बाहर आ जाते है
ऐसी कई शाम दोनों हँसते-रोते लड़ते-झगड़ते बिता चुके हैं। अब आख़िरी शाम पर आते हैं।
*Limbdi Corner*
-6 मार्च 2006, शाम 6 बजे-
“जा रही हो?”
"हाँ! बस कुछ दिनों के लिए। तुम रोना मत बस।”
“मैं नहीं रोता कभी। तुम्हारे लिए तो कभी नहीं।"
“झूठ बोलते हुए और भी क्यूट लगते हो तुम।"
“ये आख़िरी शाम है क्या?”
“अरे पागल. M Tech भी यहीं से करूँगी और फिर शादी भी...”
“किस से?”
“तुम से”
“रहने दो। झूठ बोलते हुए तुम बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। तुम नहीं आओगी वापस। मुझे पता है।
“शर्त लगा लो, मैं आऊँगी। वैसे कल शाम की ट्रेन है कैंट से।”
उस दिन दोनों हॉस्टल जाकर रोए थे। फूट-फूट कर, शायद पूरी रात।
*Varanasi Cantt Waiting Area”
“7 मार्च 2006, शाम 6 बजे”
ट्रेन 2 घन्टे लेट है। वो अपनी यादों और सामान के साथ बैठी थी। काश वो एक आख़िरी बार आता। बस एक बार दोनों जी भरकर रो लेते। वो नहीं आएगा शायद।
*अस्सी घाट*
-पाँच साल बाद, शाम 6 बजे-
अब उसने सीख लिया है बिना गिराए खाना। अब उसके लिए कोई आख़िरी बाईट नहीं छोड़ता।
वो थोड़ा पागल हो चुका है। बस कुछ बड़बड़ाता रहता है। काश एक शाम और दोनों साथ बिताते, काश वो वापस आती। काश वो ट्रेन लेट ना होती। काश 7 मार्च 2006 को बनारस कैंट में वो धमाका ना होता और काश उस धमाके में 31 लोग नहीं मरते। काश...
- तन्मय कुंज
तन्मय कुंज द्वारा लिखित
ये कहानी ज़रा पुरानी-सी है; उस वक़्त की जब बनारस और भी ज़्यादा कूल हुआ करता था, जब स्मार्टफ़ोन्स का भौकाल नहीं था, हवाओं में बकैती का कंसंट्रेशन बहुत ज़्यादा था, और जब कहानी लिखी नहीं, बकी जाती थी।
अब आप कहेंगे- बनारस तो हमेशा से कूल था बे! इसकी कूलनेस में कोई कमी नहीं आई है। बकैती तुमनें छोड़ी होगी, हमनें नहीं। अब चुपचाप एक चौचक, चपशंड-सी स्टोरी सुनाओ नहीं तो बड़े प्रेम से कूटे जाओगे।
अरे, आप तो गुस्सा हो गए। चलिए सुनाते हैं-
तो कहानी 2006 की है। वो दोनों BHU के फ़ाइनल ईयर में थे। B.Tech ख़त्म होने में 2-3 महीने बचे थे। IIT-BHU में प्लेसमेंट वाले भनभना रहे थे। प्यार-व्यार जैसा कुछ था दोनों के बीच। दोनों फ़र्स्ट ईयर से ही हमेशा साथ दिखते थे। सुबह कॉलेज में, तो शाम में लंका, अस्सी, या बनारस की उन रैंडम-सी गलियों में।
दोनों की एक बात फ़िक्स होती थी कि दिनभर चाहे कहीं भी हो, शाम हर रोज़ साथ बिताएँगे। ये फाइनल ईयर था बॉस। ज़िंदगी भर साथ रहने के वादे इसी ईयर में टूटते हैं ना। या तो उसके पापा नहीं मानेंगे या तुम्हारा प्लेसमेंट नहीं होगा।
अब जो हो, लंका चलते हैं।
*लंका, बनारस*
-शाम 6 बजे-
“तुम्हें पता है इस जगह को लंका क्यों कहते हैं?’
“क्योंकि जैसा इंडिया के साउथ में श्रीलंका है ना, अपने बनारस के साउथ में उसका रेप्लिका है, और यहाँ सबसे अच्छा रावण दहन भी होता है।"
“सबकुछ पता होता है ना तुम्हें? कितने बोरिंग हो तुम।"
“बोरिंग और मैं? रहने दो तुम।”
“और बहुत गुस्सैल भी हो।”
*बनारस कैफ़े*
-BHU road का एक अज्ञात रेस्टॉरेंट, शाम 6:00 बजे-
“कैसे खाते हो तुम, बिल्कुल बच्चों की तरह! बिना गिराए खा ही नहीं सकते।"
“नहीं आता मुझे, या तो खिला दो या सिखा दो।"
“कब सीखोगे तुम? हमेशा मैं साथ नहीं रहूँगी।"
“नहीं सीखना मुझे।"
“अब चलो ये लास्ट बाईट है। मेरे हाथ से खा लो जल्दी से।”
हाथ और वो लड़का बिना ना-नुकुर किए लास्ट बाईट खा लेता है। दोनों थोड़ा लड़ते, थोड़ा हँसते, फिर उस रेस्टॉरेंट से बाहर आ जाते है
ऐसी कई शाम दोनों हँसते-रोते लड़ते-झगड़ते बिता चुके हैं। अब आख़िरी शाम पर आते हैं।
*Limbdi Corner*
-6 मार्च 2006, शाम 6 बजे-
“जा रही हो?”
"हाँ! बस कुछ दिनों के लिए। तुम रोना मत बस।”
“मैं नहीं रोता कभी। तुम्हारे लिए तो कभी नहीं।"
“झूठ बोलते हुए और भी क्यूट लगते हो तुम।"
“ये आख़िरी शाम है क्या?”
“अरे पागल. M Tech भी यहीं से करूँगी और फिर शादी भी...”
“किस से?”
“तुम से”
“रहने दो। झूठ बोलते हुए तुम बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। तुम नहीं आओगी वापस। मुझे पता है।
“शर्त लगा लो, मैं आऊँगी। वैसे कल शाम की ट्रेन है कैंट से।”
उस दिन दोनों हॉस्टल जाकर रोए थे। फूट-फूट कर, शायद पूरी रात।
*Varanasi Cantt Waiting Area”
“7 मार्च 2006, शाम 6 बजे”
ट्रेन 2 घन्टे लेट है। वो अपनी यादों और सामान के साथ बैठी थी। काश वो एक आख़िरी बार आता। बस एक बार दोनों जी भरकर रो लेते। वो नहीं आएगा शायद।
*अस्सी घाट*
-पाँच साल बाद, शाम 6 बजे-
अब उसने सीख लिया है बिना गिराए खाना। अब उसके लिए कोई आख़िरी बाईट नहीं छोड़ता।
वो थोड़ा पागल हो चुका है। बस कुछ बड़बड़ाता रहता है। काश एक शाम और दोनों साथ बिताते, काश वो वापस आती। काश वो ट्रेन लेट ना होती। काश 7 मार्च 2006 को बनारस कैंट में वो धमाका ना होता और काश उस धमाके में 31 लोग नहीं मरते। काश...
- तन्मय कुंज
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